देइर यासीन नरसंहार( Deir Yassin massacre ): एक दर्दनाक इतिहास जिसे भुलाया नहीं जा सकता

देइर यासीन नरसंहार: एक दर्दनाक इतिहास Deir Yassin massacre
9 अप्रैल 1948 को यरुशलम के पास एक छोटा सा, शांतिपूर्ण फिलिस्तीनी गांव देइर यासीन उस भयावह हिंसा का शिकार बना, जिसने न केवल इस गांव को मिटा दिया, बल्कि पूरे फिलिस्तीनी समुदाय के लिए एक ऐसी त्रासदी बन गया, जिसका दर्द आज भी ताजा है। इस नरसंहार को इजरायली यहूदी उग्रवादी संगठनों—इरगुन (Irgun) और लेही (Lehi, जिसे स्टर्न गैंग के नाम से भी जाना जाता है)—ने अंजाम दिया। यह घटना 1948 के अरब-यहूदी संघर्ष के दौरान हुई, जब फिलिस्तीनी और यहूदी समुदायों के बीच तनाव चरम पर था। देइर यासीन नरसंहार न केवल एक गांव की तबाही की कहानी है, बल्कि यह उस डर, विस्थापन और संघर्ष की शुरुआत का प्रतीक है, जिसने लाखों फिलिस्तीनियों के जीवन को हमेशा के लिए बदल दिया।
देइर यासीन: एक शांत गांव की कहानी
देइर यासीन यरुशलम के पश्चिम में बसा एक छोटा सा गांव था, जहां लगभग 600 लोग रहते थे। यह गांव अपनी सादगी और शांति के लिए जाना जाता था। 1948 के अरब-यहूदी संघर्ष के दौरान, जब पूरे क्षेत्र में हिंसा और तनाव फैल रहा था, देइर यासीन ने खुद को इस संघर्ष से अलग रखा था। गांव के लोगों ने न तो किसी पक्ष का समर्थन किया और न ही किसी के खिलाफ हथियार उठाए। यह गांव यहूदी पड़ोसियों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व में विश्वास रखता था। कुछ स्थानीय लोगों के अनुसार, गांव ने अपने यहूदी पड़ोसियों के साथ एक अनौपचारिक समझौता भी किया था, जिसमें दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर हमला न करने का वादा किया था।
लेकिन यह शांति 9 अप्रैल 1948 को टूट गई। उस दिन सुबह-सुबह इरगुन और लेही के उग्रवादियों ने गांव पर हमला बोल दिया। यह हमला इतना सुनियोजित और क्रूर था कि गांव के लोग इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे।
हमले का भयावह मंजर Deir Yassin massacre
सुबह के समय, जब गांव के लोग अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त थे, उग्रवादियों ने देइर यासीन को चारों ओर से घेर लिया। उनके पास मशीनगनें, हथगोले और अन्य घातक हथियार थे। हमला शुरू होते ही गांव में अफरा-तफरी मच गई। उग्रवादियों ने अंधाधुंध गोलियां चलानी शुरू कीं और घरों पर हथगोले फेंके। कई घरों को डायनामाइट से उड़ा दिया गया। गांव के लोग, जिनके पास न तो हथियार थे और न ही सैन्य प्रशिक्षण, ने जो कुछ उनके पास था—चाकू, कुल्हाड़ी या पुरानी बंदूकें—उसी से बचाव की कोशिश की। लेकिन यह असमान लड़ाई थी।
उग्रवादियों ने घरों के दरवाजे तोड़े, दीवारों को उड़ाया और अंदर छिपे लोगों को बाहर खींचकर मार डाला। कई परिवारों को उनके घरों में ही गोली मार दी गई। महिलाएं, बच्चे, बुजुर्ग—कोई भी इस हिंसा से नहीं बचा। कुछ प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, गर्भवती महिलाओं को भी नहीं बख्शा गया। कुछ भयावह विवरणों में बलात्कार, शवों की बेइज्जती और मानवता के खिलाफ अपराधों का जिक्र है।
हमले के बाद, मारे गए लोगों के शवों को ट्रकों में लादकर यरुशलम की सड़कों पर घुमाया गया। इसका मकसद था अन्य फिलिस्तीनी गांवों में डर फैलाना और उन्हें अपनी जमीन छोड़कर भागने के लिए मजबूर करना। इस रणनीति में उग्रवादी सफल रहे। देइर यासीन की खबर जैसे ही आसपास के गांवों में फैली, हजारों फिलिस्तीनी डर के मारे अपना घर-बार छोड़कर भागने लगे। यह नरसंहार नकबा (फिलिस्तीनी विस्थापन) का एक महत्वपूर्ण और दुखद हिस्सा बन गया।
मृतकों की संख्या और विवाद
देइर यासीन नरसंहार में कितने लोग मारे गए, इस पर अलग-अलग अनुमान हैं। कुछ स्रोतों का कहना है कि 100 से 120 लोग मारे गए, जबकि अन्य स्रोत, खासकर फिलिस्तीनी और अरब इतिहासकार, मृतकों की संख्या 250 तक बताते हैं। अंतरराष्ट्रीय रेड क्रॉस और अन्य स्वतंत्र संगठनों ने भी इस घटना की जांच की और इसे एक भयावह नरसंहार करार दिया। मृतकों में बड़ी संख्या में महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग शामिल थे, जो इस बात का सबूत है कि यह हमला युद्ध की रणनीति से ज्यादा क्रूरता और डर फैलाने का प्रयास था।
नरसंहार के पीछे की मंशा
देइर यासीन पर हमले के पीछे कई मकसद थे। इरगुन और लेही जैसे उग्रवादी संगठन यहूदी राज्य की स्थापना के लिए एक सैन्य और मनोवैज्ञानिक रणनीति पर काम कर रहे थे। उनका मानना था कि फिलिस्तीनी आबादी को डराकर उनकी जमीन खाली करवाना एक प्रभावी तरीका होगा। देइर यासीन का हमला इस रणनीति का हिस्सा था। यह गांव यरुशलम के पास एक रणनीतिक स्थान पर था, और इसे कब्जा करने से यहूदी बलों को क्षेत्र में नियंत्रण स्थापित करने में मदद मिलती।
इरगुन के नेता मेनकेम बेगिन ने बाद में इस हमले को “सैन्य सफलता” करार दिया। उन्होंने दावा किया कि देइर यासीन की वजह से फिलिस्तीनी गांवों में इतना डर फैला कि कई जगहों पर लोग बिना लड़े ही अपनी जमीन छोड़कर भाग गए। यह बयान इस बात का सबूत है कि नरसंहार का मकसद सिर्फ एक गांव को नष्ट करना नहीं, बल्कि पूरे क्षेत्र में आतंक का माहौल बनाना था।
प्रतिक्रियाएं और आलोचना
देइर यासीन नरसंहार की खबर ने न केवल फिलिस्तीनी और अरब समुदायों को झकझोर दिया, बल्कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय और कुछ यहूदी नेताओं में भी इसकी कड़ी आलोचना हुई। डेविड बेन-गुरियन, जो बाद में इजरायल के पहले प्रधानमंत्री बने, ने इस हमले को शर्मनाक बताया। यहूदी संगठन हगनाह, जो उस समय इजरायल की मुख्य सैन्य शक्ति थी, ने भी इस हमले की निंदा की और इसे अनावश्यक क्रूरता करार दिया।
हालांकि, इरगुन और लेही के नेताओं ने इसकी जिम्मेदारी लेने से इनकार नहीं किया। मेनकेम बेगिन ने अपनी किताब The Revolt में इस हमले को जायज ठहराया और इसे यहूदी राज्य की स्थापना के लिए जरूरी बताया। यह विडंबना ही है कि बेगिन बाद में इजरायल के प्रधानमंत्री बने और 1978 में नोबेल शांति पुरस्कार भी जीता।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, इस नरसंहार ने संयुक्त राष्ट्र और अन्य संगठनों का ध्यान फिलिस्तीन-इजरायल संघर्ष की ओर खींचा। लेकिन उस समय कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। यह घटना आज भी मानवाधिकार संगठनों और इतिहासकारों के लिए एक महत्वपूर्ण अध्ययन का विषय है।
देइर यासीन का प्रभाव
देइर यासीन नरसंहार का सबसे बड़ा प्रभाव था फिलिस्तीनी आबादी का बड़े पैमाने पर विस्थापन। इस घटना के बाद, आसपास के गांवों में डर का माहौल फैल गया। हजारों लोग अपने घर, जमीन और सामान छोड़कर भागने को मजबूर हुए। यह नकबा का एक हिस्सा था, जिसमें लाखों फिलिस्तीनी शरणार्थी बन गए। आज भी कई शरणार्थी शिविरों में रह रहे फिलिस्तीनी देइर यासीन को अपने दुख और संघर्ष की शुरुआत के रूप में याद करते हैं।
इस नरसंहार ने अरब-यहूदी संबंधों को भी हमेशा के लिए बदल दिया। यह घटना फिलिस्तीनियों के लिए यहूदी बलों के खिलाफ अविश्वास और गुस्से का एक बड़ा कारण बनी। दूसरी ओर, यहूदी समुदाय के कुछ हिस्सों ने इसे अपनी सैन्य रणनीति की सफलता के रूप में देखा।
आज का देइर यासीन
आज देइर यासीन गांव लगभग पूरी तरह से मिट चुका है। इसकी जगह पर अब इजरायली बस्तियां और एक मानसिक स्वास्थ्य केंद्र बन चुका है। लेकिन इस गांव का नाम और इसकी कहानी आज भी जिंदा है। यह फिलिस्तीनी इतिहास का एक दर्दनाक अध्याय है, जिसे नकबा के प्रतीक के रूप में याद किया जाता है। हर साल 9 अप्रैल को फिलिस्तीनी समुदाय इस नरसंहार को याद करता है और अपने खोए हुए लोगों को श्रद्धांजलि देता है।
निष्कर्ष
देइर यासीन नरसंहार सिर्फ एक ऐतिहासिक घटना नहीं है; यह सत्ता, हिंसा और डर के दुरुपयोग की कहानी है। यह हमें याद दिलाता है कि कैसे निर्दोष लोग राजनीति और युद्ध की भेंट चढ़ जाते हैं। यह घटना हमें यह भी सिखाती है कि शांति और सह-अस्तित्व की राह कितनी मुश्किल हो सकती है, लेकिन यह कितनी जरूरी भी है।
आज, जब हम देइर यासीन को याद करते हैं, यह जरूरी है कि हम इतिहास से सबक लें। हिंसा और नफरत का रास्ता कभी भी स्थायी समाधान नहीं दे सकता। देइर यासीन की कहानी हमें मानवता, न्याय और शांति के महत्व को समझने के लिए प्रेरित करती है। यह एक ऐसी गवाही है, जिसे इतिहास कभी भुला नहीं सकता।
Also Read