गाँधी हत्या के बाद ब्राह्मणो का नरसंहार -“भुला दिया गया नरसंहार” क्या है ?

यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद, जो 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे द्वारा की गई थी, महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों, खासकर पुणे और आसपास के क्षेत्रों में चितपावन ब्राह्मण समुदाय के खिलाफ हिंसा भड़क उठी थी। नाथूराम गोडसे, जो खुद एक चितपावन ब्राह्मण थे, द्वारा गांधी की हत्या को लेकर इस समुदाय को निशाना बनाया गया। इस हिंसा में कई चितपावन ब्राह्मणों की हत्या की गई, उनकी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया, और कुछ मामलों में उनके घरों को जलाया गया। इसे “चितपावन ब्राह्मणों का नरसंहार” के रूप में भी संदर्भित किया जाता है।
यह घटना गांधी की हत्या के तुरंत बाद की अराजकता और भावनात्मक उत्तेजना का परिणाम थी, जहां कुछ लोगों ने गोडसे के समुदाय को सामूहिक रूप से दोषी ठहराया। हालांकि, इस हिंसा का सटीक पैमाना और प्रभावित लोगों की संख्या पर इतिहासकारों के बीच मतभेद हैं, क्योंकि इस घटना को आधिकारिक इतिहास में बहुत विस्तार से दर्ज नहीं किया गया। फिर भी, यह एक दुखद अध्याय रहा, जिसने उस समय की सामाजिक तनाव और सामुदायिक विद्वेष को उजागर किया।
चितपावन ब्राह्मण कौन हैं?
चितपावन ब्राह्मण, जिन्हें कोकणस्थ ब्राह्मण भी कहा जाता है, महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र से उत्पन्न एक हिंदू ब्राह्मण समुदाय है। यह समुदाय 18वीं शताब्दी में तब प्रमुखता में आया जब बालाजी विश्वनाथ भट, जो एक चितपावन ब्राह्मण थे, मराठा साम्राज्य के पेशवा बने। इसके बाद उनके वंशजों ने मराठा साम्राज्य पर वास्तविक शासन किया। चितपावन ब्राह्मणों ने अपनी बुद्धिमत्ता, प्रशासनिक क्षमता और शिक्षा के प्रति समर्पण के कारण समाज में महत्वपूर्ण स्थान बनाया। हालांकि, उनकी यह स्थिति अन्य ब्राह्मण समुदायों, जैसे देशस्थ ब्राह्मणों, के साथ तनाव का कारण भी बनी।
नरसंहार का ऐतिहासिक संदर्भ
चितपावन ब्राह्मणों के खिलाफ हिंसा का सबसे उल्लेखनीय उदाहरण 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के बाद देखा गया। गांधी की हत्या नाथूराम गोडसे ने की थी, जो एक चितपावन ब्राह्मण थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) तथा हिंदू महासभा से जुड़े विचारों को मानते थे। इस घटना ने पूरे देश में आक्रोश पैदा किया, और इसका परिणाम चितपावन ब्राह्मण समुदाय के खिलाफ व्यापक हिंसा के रूप में सामने आया।
गांधी की हत्या के बाद महाराष्ट्र, विशेष रूप से पुणे, सतारा, कोल्हापुर और नागपुर जैसे क्षेत्रों में चितपावन ब्राह्मणों को निशाना बनाया गया। इस हिंसा को “नरसंहार” के रूप में वर्णित किया जाता है, क्योंकि इसमें संगठित रूप से ब्राह्मणों के घरों को जलाया गया, उनकी संपत्ति लूटी गई, और कई लोगों की हत्या कर दी गई। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह हिंसा केवल नाथूराम की जाति के कारण नहीं थी, बल्कि इसमें सामाजिक-आर्थिक असमानताएं, ब्राह्मणों के प्रति ऐतिहासिक नाराजगी, और उस समय की राजनीतिक अस्थिरता भी शामिल थी।
हिंसा के कारण
- गांधी की हत्या और भावनात्मक प्रतिक्रिया: गांधी को राष्ट्रपिता माना जाता था, और उनकी हत्या ने लोगों में गुस्सा और बदले की भावना को जन्म दिया। नाथूराम के चितपावन ब्राह्मण होने के कारण यह गुस्सा पूरे समुदाय पर उतर आया।
- सामाजिक तनाव: मराठा साम्राज्य के दौरान चितपावन ब्राह्मणों की शक्ति और प्रभाव ने गैर-ब्राह्मण समुदायों में असंतोष पैदा किया था। ब्रिटिश काल में भी उनकी शिक्षा और प्रशासन में भागीदारी ने इस तनाव को बढ़ाया।
- राजनीतिक उथल-पुथल: आजादी के बाद का समय राजनीतिक अस्थिरता से भरा था। कुछ समूहों ने इस अवसर का उपयोग अपनी नाराजगी को व्यक्त करने के लिए किया।
हिंसा का स्वरूप और प्रभाव
1948 की हिंसा में चितपावन ब्राह्मणों के गांवों और घरों पर हमले हुए। कई परिवारों को अपना घर छोड़कर भागना पड़ा, और उनकी संपत्ति नष्ट कर दी गई। इस हिंसा का प्रभाव इतना गहरा था कि कई चितपावन ब्राह्मणों ने अपनी पहचान छिपानी शुरू कर दी। इतिहासकार मॉरीन एल. पी. पैटरसन ने अपनी रचना “The Shifting Fortunes of Chitpavan Brahmins: Focus on 1948” में इस घटना को विस्तार से वर्णित किया है। उनके अनुसार, यह हिंसा न केवल चितपावन ब्राह्मणों के खिलाफ थी, बल्कि इसमें समग्र रूप से ब्राह्मण-विरोधी भावनाएं भी शामिल थीं।
इस हिंसा ने चितपावन समुदाय को सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर किया। कई परिवारों ने शहरों की ओर पलायन किया, और उनकी पारंपरिक जीवनशैली प्रभावित हुई। इसके बावजूद, समुदाय ने अपनी शिक्षा और मेहनत के बल पर फिर से अपने पैर जमाए।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण और विवाद
इस नरसंहार को लेकर इतिहासकारों के बीच मतभेद हैं। कुछ का मानना है कि यह एक सुनियोजित हमला था, जबकि अन्य इसे सहज भावनात्मक प्रतिक्रिया मानते हैं। इस घटना को इतिहास के पन्नों में व्यापक रूप से दर्ज नहीं किया गया, जिसके कारण इसे “भुला दिया गया नरसंहार” भी कहा जाता है। कुछ लोग इसे ब्राह्मण-विरोधी भावनाओं के एक हिस्से के रूप में देखते हैं, जो भारत में विभिन्न कालखंडों में उभरी हैं।
निष्कर्ष
चितपावन ब्राह्मणों का नरसंहार एक दुखद घटना थी, जो सामाजिक तनाव, राजनीतिक अस्थिरता और एक व्यक्ति की गलती को पूरे समुदाय पर थोपने की मानसिकता का परिणाम थी। यह हमें यह सिखाता है कि हिंसा और नफरत किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकती। चितपावन ब्राह्मणों ने इस संकट के बाद भी अपनी पहचान और योगदान को बनाए रखा, जो उनकी दृढ़ता और देशप्रेम का प्रतीक है। इस घटना को याद करना हमें इतिहास से सबक लेने और सामाजिक सौहार्द को मजबूत करने की प्रेरणा देता है।