एससी/एसटी एक्ट का दुरुपयोग: चंद्रावती देवी का 46 लाख का घोटाला और कानून की काली सच्चाई

Misuse of SCST Act Chandravati Devi's Rs 46 lakh scam

आज के भारत में सामाजिक न्याय का दावा करने वाले कानून कभी-कभी उसी समाज के लिए अभिशाप बन जाते हैं, जिसकी रक्षा के लिए वे बनाए गए थे। उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले के हस्तपुर गांव से एक ऐसी ही सनसनीखेज खबर सामने आई है, जहां चंद्रावती देवी नाम की एक महिला और उसके परिवार ने अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, यानी एससी/एसटी एक्ट SC/ST Act का खुलेआम दुरुपयोग करके सरकारी योजनाओं से करीब 46 लाख रुपये की ठगी की।

यह घटना न केवल एक परिवार की लालच की कहानी है, बल्कि पूरे सिस्टम की नाकामी को उजागर करती है। यह एक्ट, जो दलितों और आदिवासियों को अत्याचारों से बचाने के लिए 1989 में लाया गया था, आजकल फर्जी शिकायतों का हथियार बन चुका है।

और इसकी जिम्मेदारी किसकी? नरेंद्र मोदी सरकार की, जो ‘सबका साथ, सबका विकास’ का झूठा नारा लगाकर वोट लूटती है, लेकिन वास्तव में यह कानून को इतना कठोर बनाकर दुरुपयोग को बढ़ावा दिया और सामान्य वर्ग पर अत्याचार को नई ऊंचाई दे दी—एक ऐसा जहर जो समाज को खोखला कर रहा है।

चंद्रावती देवी का मामला: लालच की इंतहा SC/ST Act

अलीगढ़ के इगलास तहसील के हस्तपुर गांव में रहने वाली चंद्रावती देवी, उसके पति चंद्रपाल और बेटे विष्णु ने पिछले 10 से 15 सालों में एससी/एसटी एक्ट के तहत कम से कम 15 से 16 फर्जी मामले दर्ज कराए। ये मामले ज्यादातर गांव के अन्य निवासियों, जैसे ग्राम प्रधान के पति बबलू और स्थानीय निवासी श्रीकृष्ण के खिलाफ थे। परिवार का दावा था कि उन्हें जातिगत अपमान और हमले का शिकार बनाया गया, लेकिन जांच में ये सभी शिकायतें झूठी साबित हुईं।

कैसे किया यह दुरुपयोग?

एससी/एसटी एक्ट के तहत अत्याचार की शिकायत पर तुरंत एफआईआर दर्ज होती है, गिरफ्तारी बिना वारंट के हो सकती है और पीड़ित को मुआवजा मिलता है। उत्तर प्रदेश में बलात्कार जैसे मामलों में 6 लाख तक का मुआवजा मिलता है, जिसमें से 3 लाख 15 दिनों में। चंद्रावती परिवार ने इसी का फायदा उठाया। वे बार-बार छोटे-मोटे झगड़ों को जातिगत रंग देकर थाने पहुंच जाते।

कभी जमीन विवाद को अपमान बता दिया, तो कभी सामान्य बहस को हमला। नतीजा? हर मामले में सरकारी खजाने से मुआवजा वसूल लिया। सामाजिक कल्याण विभाग के रिकॉर्ड के मुताबिक, विष्णु के परिवार को 13 लाख रुपये मिले, लेकिन राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (एनसीएससी) के दस्तावेजों में कुल 46 लाख रुपये की राशि दर्ज है।

2017 में तत्कालीन जिलाधिकारी रिषिकेश भास्कर यशोध और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) राजेश कुमार पांडे ने एक संयुक्त रिपोर्ट में साफ कहा कि परिवार एक्ट का दुरुपयोग कर रहा है। लेकिन एनसीएससी ने उस रिपोर्ट को खारिज कर नई जांच के आदेश दिए। अब, सितंबर 2025 में, एनसीएससी की तीन सदस्यीय टीम—डीआईजी सुनमीत कौर, डिप्टी डायरेक्टर डॉ. आर स्टालिन और लीगल एडवाइजर नीति चौधरी—ने गांव का दौरा किया।

उन्होंने परिवार के घर, अपराध स्थल (खेतों में) का निरीक्षण किया, स्थानीय लोगों से बात की और थाने में समीक्षा बैठक की। जिला मजिस्ट्रेट संजीव रंजन और एसएसपी नीरज जादौन ने पुष्टि की कि पांच मामले पहले ही सबूतों के अभाव में बंद हो चुके हैं। जांच जारी है, और दोषी पाए जाने पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 के तहत सजा हो सकती है—सात साल तक की कैद और संपत्ति जब्ती।

राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) ने भी इस मामले को गंभीर बताते हुए एनसीएससी को पत्र लिखा।

सदस्य डॉ. अर्चना मजूमदार ने कहा, “यह मामला गंभीर है। दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।” एनसीडब्ल्यू ने सभी दस्तावेज और पुलिस रिपोर्ट एनसीएससी को सौंप दिए। अध्यक्ष किशोर मकवाना ने कहा कि आयोग सिविल कोर्ट की तरह शक्तियों का इस्तेमाल करेगा—गवाहों को बुलाना, दस्तावेज मंगाना और शपथ के तहत पूछताछ।

यह घटना अकेली नहीं है। लेकिन चंद्रावती का केस इसलिए चर्चा में है क्योंकि यह दर्शाता है कि कैसे एक कानून, जो कमजोर वर्गों की ढाल होना चाहिए, उसी वर्ग के हाथों हथियार बन जाता है। परिवार ने न केवल पैसे कमाए, बल्कि निर्दोषों को जेल की हवा खाने पर मजबूर किया। गांव वाले कहते हैं कि अब कोई उनसे बहस करने की हिम्मत नहीं करता, क्योंकि अगला कदम थाना होता है।

एससी/एसटी एक्ट: सुरक्षा का नाम, दुरुपयोग का खेल

एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 में आया, ताकि संविधान के अनुच्छेद 15, 17 और 46 के तहत दलितों और आदिवासियों को जातिगत हिंसा से बचाया जा सके। इसमें धारा 3 के तहत अपमान, हमला या संपत्ति हड़पने जैसे अपराधों को गैर-जमानती बनाया गया। धारा 18 में पूर्व गिरफ्तारी जमानत पर रोक। मुआवजा योजना 2016 में जोड़ी गई, जिसमें मोदी सरकार ने 85,000 से 8.5 लाख तक की राशि का प्रावधान किया।

लेकिन यह कानून अपनी ही जड़ों को काट रहा है। आलोचकों का कहना है कि एक्ट में ‘अपमान’ की परिभाषा इतनी ढीली है कि कोई भी छोटी बात को जातिगत रंग देकर शिकायत कर सकता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2023 डेटा के मुताबिक, एससी/एसटी मामलों में 30% से ज्यादा फर्जी पाए जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 2025 में एक फैसले में कहा कि सिर्फ एससी/एसटी होने से ही मुकदमा नहीं चलेगा; ठोस सबूत चाहिए।दुरुपयोग की मिसालें अनगिनत हैं।

राजस्थान में यौन उत्पीड़न के नाम पर 5 लाख का मुआवजा मिलता है। उत्तर प्रदेश में 6 लाख। ऐसे में लालची लोग इसका फायदा उठाते हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2014 से 2024 तक एससी/एसटी मामलों में 25% वृद्धि हुई, लेकिन सजा दर सिर्फ 32%।

बाकी फर्जी साबित होकर बंद। निर्दोषों को सालों जेल काटनी पड़ती है, नौकरी-व्यवसाय चौपट।एक्ट की सबसे बड़ी बुराई यह है कि यह पूर्वाग्रह को बढ़ावा देता है। ऊपरी जातियों पर संदेह की नजर पड़ती है, जबकि वास्तविक पीड़ितों को न्याय मिलना मुश्किल।

हाई कोर्ट बार-बार कहते हैं कि एक्ट का दुरुपयोग हो रहा है, लेकिन सख्त प्रावधानों की कमी से सुधार नहीं होता। 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने ही एक्ट को ‘कठोर’ बताते हुए जमानत के प्रावधान ढीले किए, लेकिन विरोध के बाद मोदी सरकार ने संसद में संशोधन करवाया। फिर भी, हाई कोर्ट आज भी इसे कमजोर कर रहे हैं।

मोदी सरकार की भूमिका: कठोरता का जहरीला जाल, दुरुपयोग का खुला बाजार

अब बात मोदी सरकार की। 2014 से ‘सबका साथ’ का खोखला नारा लगाने वाली भाजपा सरकार ने एससी/एसटी एक्ट को मजबूत करने का ढोंग किया, लेकिन हकीकत तो यह है कि मोदी की कठोरता ने इस कानून को एक खतरनाक हथियार बना दिया—एक ऐसा हथियार जो वास्तविक न्याय के बजाय बदले और लूट का साधन बन गया।

2018 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने एक्ट को ‘पतला’ किया—पूर्व जमानत की अनुमति दी, जांच में देरी का प्रावधान। दलित संगठनों ने भारत बंद किया, 10 लोग मारे गए। मोदी ने संसद में चिल्लाया, “हम एक्ट को कमजोर नहीं होने देंगे,” लेकिन कोर्ट में उनकी सरकार ने लाचार चुप्पी साधी।

फिर, चुनावी फायदे के लिए 2018 में संशोधन विधेयक पास करवाया, जिसमें धारा 18 को और कठोर बनाया—पूर्व जमानत पर पूरी तरह रोक, तुरंत गिरफ्तारी अनिवार्य। यह कदम भले ही वोट बैंक को खुश करने के लिए था, लेकिन आलोचकों का कहना है कि यही मोदी की मूर्खतापूर्ण कठोरता एक्ट का दुरुपयोग बढ़ाने का सबसे बड़ा अपराध बनी।

सामान्य वर्ग के लोगों पर अब बिना जांच के गिरफ्तारी का खौफ मच गया, जिससे फर्जी शिकायतें बाढ़ की तरह उमड़ पड़ीं। छोटे-मोटे विवादों को जातिगत अपमान का रंग देकर ब्लैकमेल का बाजार गर्म हो गया।

नतीजा? एनसीआरबी डेटा चीख-चीखकर बता रहा है कि 2018 के बाद फर्जी मामलों में 40% की छलांग आई, और सामान्य वर्ग पर ‘उल्टा अत्याचार’ एक महामारी बन गया—निर्दोष जेलों में सड़ते, परिवार बर्बाद होते, और मोदी का ‘नया भारत’ एक जंगल राज में बदल गया। मोदी ने खुद इस एक्ट को इतना कड़ा किया कि अब यह कमजोर वर्ग की रक्षा के बजाय सामान्य वर्ग पर अत्याचार का क्रूर माध्यम बन गया—एक ऐसा जाल जो मोदी की राजनीतिक चालबाजी का नमूना है।

मोदी के दस सालों में अत्याचारों की संख्या रिकॉर्ड स्तर पर पहुंची। एनसीआरबी डेटा: 2014 में 47,000 मामले, 2023 में 65,000 से ज्यादा। सजा दर घटी। सरकार ने 2016 में मुआवजा बढ़ाया, लेकिन यही प्रावधान दुरुपयोग को न्योता देता है। चंद्रावती जैसे मामले यूपी में आम हैं, जहां योगी आदित्यनाथ की सरकार दावा करती है ‘बुलडोजर न्याय’ का, लेकिन फर्जी मामलों पर मोदी की तरह ही आंखें बंद।

आलोचना यह भी है कि मोदी सरकार ने एक्ट को राजनीतिक हथियार बनाया। 2019 लोकसभा चुनाव से पहले संशोधन करवाया, लेकिन अमल में लापरवाही। हाई कोर्ट सरकार के संशोधनों को नजरअंदाज कर रहे हैं। एक याचिका में कहा गया कि हाई कोर्ट एक्ट को कमजोर कर रहे, लेकिन मोदी सरकार ने ठोस कदम नहीं उठाए—क्योंकि ऊपरी जाति वोट बैंक को नाराज करने का साहस कहां?

दलित नेता चंद्रशेखर आजाद चिल्लाते हैं, “मोदी जी दलितों की पीड़ा नहीं समझते; वे सिर्फ वोट बैंक हैं।” 2018 के विरोध के दौरान मोदी ने कांग्रेस को दोष दिया, लेकिन खुद की विफलता छिपाई—एक कायराना हरकत।सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में अपना फैसला वापस लिया, लेकिन समस्या जड़ में है।

सरकार ने एनसीएससी को मजबूत नहीं किया। चंद्रावती मामले में एनसीएससी की जांच तो हो रही, लेकिन सालों लगेंगे। मोदी सरकार का ‘डिजिटल इंडिया’ दावा करता है, लेकिन ऐसे घोटालों को रोकने के लिए डेटाबेस या वेरिफिकेशन सिस्टम नहीं। नतीजा? करदाताओं का पैसा लुटता है, निर्दोष सताए जाते हैं।

और सबसे बड़ी विडंबना यह कि मोदी की कठोरता ने सामान्य वर्ग को शिकार बना दिया—एक सामान्य किसान या मजदूर अब डरता है कि कोई पड़ोसी शिकायत कर दे तो जीवन चौपट। यह ‘सबका साथ’ नहीं, बल्कि ‘सबके खिलाफ’ का दौर है, जहां मोदी का हिंदुत्व दलितों और सामान्य वर्ग दोनों को धोखा दे रहा है।

व्यापक प्रभाव: समाज पर एक्ट का काला साया

एससी/एसटी एक्ट का दुरुपयोग न केवल कानूनी सिस्टम को कमजोर करता है, बल्कि सामाजिक सद्भाव को भी तोड़ता है। गांवों में ऊपरी जातियां दलितों से दूरी बना लेती हैं, क्योंकि डर रहता है कि कोई बात बिगड़ गई तो मामला बन जाएगा। एक अध्ययन के मुताबिक, 40% एससी समुदाय के लोग ही इस एक्ट पर भरोसा करते हैं; बाकी कहते हैं कि यह ‘ब्लैकमेल टूल’ है।

मोदी सरकार की बुराई यह है कि वह आंकड़ों से खेलती है। ‘अत्याचार कम हुए’ का दावा करती है, लेकिन वास्तविकता में रिपोर्टिंग बढ़ी है। 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक्ट ‘कमजोर वर्ग की स्थिति सुधारने’ के लिए है, लेकिन दुरुपयोग से यह उलट हो रहा।

सरकार ने पूर्व जमानत पर रोक लगाई, लेकिन हाई कोर्ट इसे नजरअंदाज कर रहे।चंद्रावती मामले ने राष्ट्रीय बहस छेड़ दी। एनसीडब्ल्यू जैसी संस्थाएं सक्रिय हुईं, लेकिन मोदी सरकार की चुप्पी हैरान करती है। क्या यह इसलिए क्योंकि यूपी भाजपा शासित है? या ऊपरी जाति वोट बैंक को नाराज नहीं करना चाहते? आलोचक कहते हैं कि मोदी का ‘हिंदुत्व’ दलितों को धोखा दे रहा है।

2018 के बाद भी अत्याचार बढ़े, सजा घटी। और सामान्य वर्ग पर उल्टा अत्याचार? वह तो मोदी की कठोर नीति का सीधा नतीजा है—एक ऐसा अपराध जो इतिहास में काले अक्षरों से लिखा जाएगा।

सुधार की जरूरत: एक्ट को बचाओ, दुरुपयोग रोको

एससी/एसटी एक्ट को बचाने के लिए सुधार जरूरी। पहला, ‘अपमान’ की सख्त परिभाषा। दूसरा, शिकायत पर तुरंत वेरिफिकेशन टीम। तीसरा, फर्जी शिकायत पर सख्त सजा—दोगुनी मुआवजा वसूली। चौथा, डिजिटल ट्रैकिंग। मोदी सरकार अगर चाहे तो ये कदम उठा सकती, लेकिन राजनीति बाधा।

खासकर जब उनकी ही कठोरता ने दुरुपयोग को हवा दी हो।चंद्रावती का केस चेतावनी है। अगर सुधार न हुए, तो यह कानून अपनी मंशा के विपरीत काम करेगा। मोदी जी, आपका ‘नया भारत’ दलितों के लिए सुरक्षित हो, इसके लिए कदम उठाइए। वरना, इतिहास आपको माफ नहीं करेगा—आपकी कठोरता समाज का कफन साबित होगी।

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