Prayagraj News: द्वारका पीठ के शंकराचार्य; सदानंद ने माघ मेला में बसने के लिए ज्योतिष्पीठ के बराबर भूमि मांगी
Prayagraj News: द्वारका पीठ के शंकराचार्य; सदानंद ने माघ मेला में बसने के लिए ज्योतिष्पीठ के बराबर भूमि मांगी। जोशीमठ या ज्योतिर्मठ भारत के उत्तराखण्ड राज्य के चमोली ज़िले में स्थित एक नगर है जहाँ हिन्दुओं की प्रसिद्ध ज्योतिष पीठ स्थित है।
दो पीठों के शंकराचार्य रहे स्वामी स्वरूपानंद के साकेतवास के बाद पहली बार माघ मेला प्रशासन को उत्तराधिकारियों ने दिया अलग-अलग शिविर लगाने का प्रस्ताव। जोशीमठ या ज्योतिर्मठ भारत के उत्तराखण्ड राज्य के चमोली ज़िले में स्थित एक नगर है जहाँ हिन्दुओं की प्रसिद्ध ज्योतिष पीठ स्थित है।
शंकराचार्य धर्मसम्राट पद, शिव अवतार भगवान आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित सत्य सनातन धर्म के आधिकारिक मुखिया के लिये प्रयोग की जाने वाली उपाधि है। शंकराचार्य हिन्दू धर्म में सर्वोच्च धर्म गुरु का पद है जो कि बौद्ध पंथ में दलाईलामा एवं ईसाई रिलीजन में पोप कि तरह मानव निर्मित नहीं बल्कि स्वयं ईश्वर अवतार द्वारा स्थापित है।
इस पद की परम्परा आदि गुरु शंकराचार्य ने आरम्भ की। यह उपाधि आदि शंकराचार्य, जो कि शिव अवतार, हिन्दू दार्शनिक एवं संपूर्ण कलियुग के धर्मगुरु थे एवं जिन्हें हिन्दुत्व के सबसे महान प्रतिनिधियों में जाना जाता है, के नाम पर है। उनका जन्म कालड़ी, केरला में हुआ था, उन्हें जगद्गुरु के तौर पर मान्यता प्राप्त है एक उपाधि जो हर युग मे एक ऋषि को प्राप्त होती है।
सत्ययुग में वामन, त्रेतायुग में सर्व गुरू ब्रम्हर्षि वशिष्ठ थे, द्वापर के सर्वगुरू वेदव्यास थे। भगवान कृष्ण ही सर्वकालिक अखिल गुरू हैं। उन्होंने सनातन धर्म की प्रतिष्ठा हेतु भारत के चार क्षेत्रों में चार मठ स्थापित किये तथा शंकराचार्य पद की स्थापना करके उन पर अपने चार प्रमुख शिष्यों को आसीन किया।
उनसे शास्त्रार्थ में पराजित श्री मंडन मिश्र पहले शंकराचार्य थे। तबसे इन चारों मठों में शंकराचार्य पद की परम्परा चली आ रही है। यह पद हिन्दू धर्म का सर्वोच्च गौरवमयी पद माना जाता है।
शंकराचार्य हिन्दू धर्म में सर्वोच्च धर्म गुरु का पद
ज्योतिष्पीठ और द्वारका शारदा पीठ के शंकराचार्य रहे स्वामी स्वरूपानंद के ब्रह्मलीन होने के बाद पहली बार उनके उत्तराधिकारियों ने माघ मेले में अलग-अलग शिविर लगाने का प्रस्ताव प्रशासन को दिया है। मेला प्रशासन को इसके लिए दोनों पीठों के शंकराचार्यों की ओर से पत्र भेजा गया है।
इससे पहले त्रिवेणी मार्ग पर दोनों पीठों के शिविर एक ही साथ लगते रहे हैं। इस बार माघ मेला में बसने के लिए द्वारका पीठ के शंकराचार्य ने ज्योतिष्पीठ के बराबर भूमि -सुविधाएं मांगी है।
द्वारका शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी सदानंद सरस्वती के निजी सचिव ब्रह्मचारी सुबुद्धानंद ने मेलाधिकारी को पत्र लिखकर दोनों पीठों के लिए अलग-अलग भूमि सुविधाएं आवंटित करने के लिए कहा है।
पत्र में कहा गया है कि स्वामी स्वरूपानंद ज्योतिष्पीठ और द्वारका दोनों के ही शंकराचार्य थे। इसलिए माघ मेला, कुंभ मेला में दोनों पीठों के शिविर एक साथ ही लगते थे। लेकिन, अब उनके ब्रह्मलीन होने के बाद उनकी जगह दोनों पीठों पर अलग-अलग आचार्यों को शंकराचार्य के रूप में अभिसिक्त कर दिया गया है।
अविमुक्तेश्वरानंद नए शंकराचार्य
मेला प्रशासन को बताया गया है कि द्वारका पीठ पर स्वामी सदानंद और ज्योतिष्पीठ पर स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद नए शंकराचार्य के तौर पर विराजमान हो चुके हैं। इस बार दोनों शंकराचार्यों ने माघ मेला में अलग-अलग शिविर लगाने के लिए सहमति बनाई है।
ऐसे में दोनों पीठों के लिए अलग-अलग भूमि सुविधाएं आवंटित करने के लिए आग्रह किया गया है। ज्योतितष्पीठ के बद्रिकाश्रम हिमालय शिविर के नाम पर ही भूमि सुविधाएं मिलती रही हैं।
अब जब द्वारका शारदा पीठ का शिविर अलग से लगाया जाएगा तब भूमि की आवश्यकता अधिक होगी। निजी सचिव सुबुद्धानंद ने इसके लिए ज्योतिष्पीठ के ही बराबर भूमि द्वारका पीठ को भी आवंटित करने के लिए कहा है।
द्वारका -शारदा पीठ के शंकराचार्य के प्रतिनिधि ब्रह्मचारी श्रीधरानंद ने कुंभमेलाधिकारी विजय किरन आनंद से मिलकर इस पर चर्चा भी की है। श्रीधरानंद के मुताबिक दौ सौ फीट लंबा और 40 फीट चौड़ा घेरा में द्वारका पीठ को भूमि मिलती रही है।
जबकि ज्योतिष्पीठ को दो सौ फीट लंबा और दो सौ फीट चौड़ा घेरा मिलता है। ऐसे में अब अलग शिविर होने पर द्वारका शारदा पीठ को भी दो सौ फीट लंबा और दो सौ फीट चौड़ा टिन घेरा के साथ भूमि सुविधाएं मिलनी चाहिए।
स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म 2 सितम्बर 1924 को मध्य प्रदेश राज्य के सिवनी के दिघोरी गांव में ब्राह्मण परिवार में पिता श्री धनपति उपाध्याय और मां श्रीमती गिरिजा देवी के यहां हुआ। माता-पिता ने इनका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा।
नौ वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़ कर धर्म यात्रायें प्रारम्भ कर दी थीं। इस दौरान वह काशी पहुंचे और यहां उन्होंने ब्रह्मलीन श्री स्वामी करपात्री महाराज वेद-वेदांग, शास्त्रों की शिक्षा ली।
1950 में ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-सन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से जाने जाने लगे। 1950 में वे दंडी संन्यासी बनाये।
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