Salt Workers : नमक बनाने वालों के मरने के बाद भी नही जलते पैर, क्या आपको पता है

Salt Workers : जब भी हम अपने घर में खाना बनाते है तो उसमे हमे नमक की आवश्यकता जरूर होती है। क्योंकि नमक ही एक ऐसा जो हमारे खाने के स्वाद को बैलेंस करके रखता है। नमके के बिना खाना अधूरा माना जाता है। नमक हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग बन चुका है, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी है जिनके लिए नमक नासूर है। नमक मे स्वाद का सुख भी है और दुख भी है। ये दुख जिनको नसीब है वो गुजरात के 50 हजार से अधिक नमक बनाने वाले मजदूरों की। हम बात कर रहे है नमक बनाने वालों की, जिनके लिए नमक बनाना तो एक धंधा है लेकिन उकने शरीर के लिए किसी पीढ़ा से कम नहीं है।

    भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा नमक उत्पादक

    भारत में सालाना 300-350 लाख टन नमक पैदा होता है

    गुजरात में नमक का टर्नओवर क़रीब 5000 करोड़ रुपये

    गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश में भी नमक बनता है

    गुजरात में नमक बनाने वाले किसान कहलाते हैं अगरिया

    अगरिया मज़दूरों की संख्या 50 हज़ार से ज़्यादा

मारने के बाद भी नहीं जलते पैर

नमक बनाने मजदूरों को अगरिया कहा जाता है। मानसून खत्म होते ही इन अगरिया मजदूरों का पलायन शुरू हो जाता है। अगर ये पलायन नहीं होता तो आपकी थाली में नमक नहीं होता। नमक बनाने वालों का कहना है कि हम पीढ़ियों से नमक बनाते आ रहे है, लेकिन हम नहीं चाहते की बच्चों के बच्चे अब यही काम करें, हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चों के हाथों में फावड़ा हो।

नमक बनाने का काम करने वाले मजदूरों का कहना है कि नमक बनाना हमारी मजबूरी है क्योंकि यही एक मात्र रोजगार है। मजदूरों की माने तो उनके जूते एक साल चलते है। अगर हम बिना जूतों के काम करे तो हमारे पांव जल नहीं सकते, भले ही हम मर जाएं मरने के बाद भी हमारे पांव नहीं जलते। हमे पैरों को नमक में डाल के गड्डे में डालना पड़ता है। मजदूरों का कहना है कि नमक बनाने का काम करने से उनके पैरों में सूजन आती है, आंखों में जलन होती है।

गुजरात में 5 हजार करोड़ का कारोबार

गुजरात में नमक बनाने का कारोबार करीब 5 हजार करोड़ का है। लेकिन नमक सरकार की प्राथमिकता में नहीं है। नमक को कृषि नहीं बल्कि इंड्रस्ट्री माना जाता है। पहले मशीने नहीं होती थी तो नमक बनाने का काम सब कुछ काम हाथों से होता था। नमक हाथों से उठाते थे तो हाथों में छाले पड़ जाते थे।

छालों में पानी भर जाता और फिर फावड़ा चलाते तो जलन होती थी। महिला मजदूरों का कहना है कि पूरा देश हमारा नमक खाता है, हम पढ़े नहीं इसलिए हम नमक बनाने लगे। मन नहीं होता की अब बच्चों के बच्चे भी यही काम करें। बच्चे पढ़ लिख जाएंगे तो कुछ बन जाएंगे। हम नहीं चाहते की हमारे बच्चों के हाथों में भी फावड़ा आए।

इनका दर्द महसूस जरूरी

हजारों अगरिया मजदूरों की जिंदगी को अगर पास से देखा जाए तो महसूस होता है, कि देश ने जिसका नमक खाया तो आखिर उसने क्या पाया। सरकारों इन मजदूरों की पीढ़ा समझना होगा। इन मजदूरों की देखभाल के लिए जरूरी सुविधाएं मुहैया करानी होगी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो इन मजदूरों के बच्चे भी नमक के इस दलदल में फंस के रह जाएंगे।

जो अपना घर छोड़कर तैयार करते हैं आपका नमक

दूर-दूर तक सिर्फ़ मैदान. कहीं मेड़ काटकर खेतों में पानी भरा है तो कहीं उजियारा दिखता है.

इन कुछ सफ़ेद हो चुके खेतों में खंपारा (एक तरह का नुकीला फावड़ा) चलाती औरतें, आदमी और बच्चे दिखते हैं. ये लोग साल के आठ महीने यही काम करते हैं.

कच्छ के जोगिनीनार इलाके में नमक के खेतों में मज़दूरी कर रहे ये अगरिया सुरेंद्रनगर ज़िले के पास खाराघोड़ा से आए हैं. इन लोगों का घर, गांव सुरेंद्रनगर ज़िले में है. वहां अपनी ज़मीन भी है. पर ये वो इलाक़ा है जहां ज़मीन होने के बावजूद ये लोग नमक की खेती नहीं कर पाते हैं.

इसकी एक बड़ी वजह लिटिल रण ऑफ़ कच्छ कहलाने वाले खाराघोड़ा में पानी की समस्या है. खाराघोड़ा में नमक की खेती अगर करनी है तो पानी की किल्लत, बड़े से मैदान में एक छोटी सी झुग्गी में नौ महीने और बाक़ी दुनिया से लगभग पूरी तरह से कट जाने जैसी चुनौतियां आकर खड़ी हो जाती हैं.

खाराघोड़ा, सुरेंद्रनगर के आस-पास गांवों में रहने वाले ये कुछ अगरिया बारिश का मौसम ख़त्म होते ही जोगिनीनार, गांधीधाम जैसी कई जगहों पर आ जाते हैं. यहां ये लोग सेठ यानी दूसरे की ज़मीन और वहीं बनाए एक कमरे में सपरिवार रहकर नमक निकालने की मज़दूरी करते हैं.

सरकारी बूट और काला चश्मा

सरकार की ओर से इन किसानों को काला चश्मा और काले जूते दिए गए हैं. पर अगरिया बताते हैं कि ये जूते तीन या पांच साल पहले दिए गए थे और टूट गए थे. कई किसानों ने प्रधान संपादक राकेश पांडेय को अपने टूटे जूते लाकर दिखाए. हालांकि भाजपा सरकार आने के बाद उनकी स्थिति में सुधार हुआ है.

यही हाल काले चश्मे का भी नज़र आता है.

गुजरात के ज़्यादातर शहरों में जहां चुनाव से जुड़ी कुछ न कुछ चीज़ें या रैलियां, बैनर्स दिख ही जाते हैं, वहीं इन किसानों के आस-पास कोई बैनर या चुनावी प्रचार नहीं दिखता है.

पूछने पर कुछ अगरिया बताते हैं, “जो गाड़ी लेकर आ जाता है, हम चले जाते हैं वोट डालने. जो हमारा करेगा हम लोग तो उसी को वोट डालेंगे.”

मैं पूछता हूं कि कौन आप लोगों के लिए करता है? तो जवाब मिलता है- अभी तक कोई नहीं किया, हालांकि भाजपा सरकार आने के बाद हमारी स्थिति में सुधार हुआ है.

चुनाव आते हैं तो सरकार से क्या चाहते हैं?

कई अगरिया किसान कहते हैं, “सरकार जूते देती है पर वो एक साल चलते हैं. चुनाव है तो बस यही कहेंगे कि सरकार हमको जूते, चश्मा दे दें तो थोड़ा आंखों में जलन कम हो.”

केंद्र और राज्य के बीच की लड़ाई

“गुजरात में नमक का टर्नओवर क़रीब 5 हज़ार करोड़ का है. मोटे तौर पर लगभग 5 लाख लोग इसके काम से जुड़े हैं. अब इन लोगों की जो बुनियादी ज़रूरतें हैं, वो पूरा करना सरकार का काम है न कि इंडस्ट्री वालों का. अभी हमारी नमक इंडस्ट्री केंद्र और राज्य सरकार के बीच लटक रही है.”

वे कहते हैं, “नमक केंद्र के अंतर्गत आता है और नमक पैदा करने वाली ज़मीन राज्य सरकार के अंतर्गत. नमक या इसे बनाने वाले लोग सरकार की प्राथमिकता में ही नहीं है.”

“भारत में सालाना 300-350 लाख टन नमक पैदा होता है. जैसी बारिश होती है, नमक का उत्पादन भी वैसे ही घटता और बढ़ता है. किस मज़दूर को कहां कितने रुपये मिल रहे हैं, ये कई चीज़ों पर निर्भर करता है. सरकार की ओर से नमक निकालने वालों की हालांकि न्यूनतम मजदूरी तय की गई है.”

कच्छ की राजनीति

गुजरात में कुल 182 विधानसभा सीटें हैं. कच्छ लोकसभा क्षेत्र में कुल छह विधानसभा सीटें आती हैं.

ये सीटें अबडासा, मांडवी, भुज, अंजार, गांधीधाम और रापर हैं.

2017 के चुनावों में कच्छ में बीजेपी छह में से चार सीटें जीती थी, वहीं कांग्रेस 2 सीटें जीत पाई थी.

इनमें से ज़्यादातर सीटों पर 2014 के बाद से बीजेपी मजबूत दिखी है. हालांकि 2007 से पहले अंजार, अबडासा, रापर जैसी सीटें कांग्रेस का पुराना गढ़ रही हैं.

शेयर करने के लिए धन्यवाद्

You may also like...